कबीर दास के दोहे
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
(यदि कोई सही तरीके से
बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय
के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।)
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
(इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो। और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो।)
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
(न तो अधिक बोलना अच्छा है,
न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी
नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।)
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
(यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है। तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।)
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
(कबीर कहते हैं कि जब गुण
को परखने वाला गाहक मिल जाता है, तो गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा गाहक
नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।)